धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
जब उठे हाथ वो कल रख के कमर पर अपना
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देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
रह कर मकान में मिरे मेहमान जाइए
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
नासेहा आया नसीहत है सुनाने के लिए
काली काली घटा बरसती है
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
भूल कर ले गया सू-ए-मंज़िल
की मय से हज़ार बार तौबा