डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
कि शम्अ' बैठे हैं पहले ही हम बुझाए हुए
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नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
तुम्हें शब-ए-व'अदा दर्द-ए-सर था ये सब हैं बे-ए'तिबार बातें
लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
चाहने वालों को चाहा चाहिए
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
हैं बहुत देखे चाहने वाले
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी