मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
अब आईना भी कहता है कि मैं मद्द-ए-मुक़ाबिल हूँ
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डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
नासेहा आया नसीहत है सुनाने के लिए
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
ऐ शैख़ ये जो मानें का'बा ख़ुदा का घर है
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
ब-जुज़ साया तन-ए-लाग़र को मेरे कोई क्या समझे
जिस का राहिब शैख़ हो बुत-ख़ाना ऐसा चाहिए
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा