न चलो मुझ से तुम रक़ीबो चाल
उँगलियों पर तुम्हें नचा दूँगा
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रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
काली काली घटा बरसती है
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
रह कर मकान में मिरे मेहमान जाइए
तुम्हें शब-ए-व'अदा दर्द-ए-सर था ये सब हैं बे-ए'तिबार बातें
देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
चाहने वालों को चाहा चाहिए
इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में