तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
हम आप भुगत लेंगे कि जो हम पे बनी है
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काली काली घटा बरसती है
रह कर मकान में मिरे मेहमान जाइए
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं