तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
मुझे मालूम थी इस ख़्वाब की ता'बीर पहले से
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काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
ऐ शैख़ ये जो मानें का'बा ख़ुदा का घर है
मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
की मय से हज़ार बार तौबा
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये