ऐ शैख़ ये जो मानें का'बा ख़ुदा का घर है
बुत-ख़ाना में बता तू फिर कौन जल्वा-गर है
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गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द
एक मुद्दत में बढ़ाया तू ने रब्त
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
काली काली घटा बरसती है
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है