लबों में आ के क़ुल्फ़ी हो गए अशआर सर्दी में
ग़ज़ल कहना भी अब तो हो गया दुश्वार सर्दी में
Rahat Indori
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फ़क़त रंग ही उन का काला नहीं है
क़ाबिज़ रहा है दिल पे जो सुल्तान की तरह
बजट की कई सख़्तियाँ और भी हैं
शादी के जो अफ़्साने हैं रंगीन बहुत हैं
इस दौर के मर्दों की जो की शक्ल-शुमारी
ईद पर मसरूर हैं दोनों मियाँ बीवी बहुत
बढ़ती रही हर साल जो तादाद हमारी
चेहरे चाँद सितारों वाले हेरा-फेरी करते हैं
मुनाफ़ा मुश्तरक है और ख़सारे एक जैसे हैं
माडर्न हीरें तो ज़र-दारों के हाँ रह जाएँगी
गिरानी का असर