जनाब-ए-शैख़ अपने वाज़ में रोज़ाना बरसों से
सुनाए जा रहे हैं एक ही अफ़्साना बरसों से
डिश-ऐन्टेना के रस्ते रोज़ आती हैं मिरे घर में
वो हूरें जिन के चक्कर में हैं ये मौलाना बरसों से
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दफ़्तर-ए-शादी का मुन्तज़िम
लबों में आ के क़ुल्फ़ी हो गए अशआर सर्दी में
ऐसे लगे है नौकरी माल-ए-हराम के बग़ैर
कुछ लोग रब्त-ए-ख़ास से आगे निकल गए
इश्क़ में कुछ इस सबब से भी है आसानी मुझे
सारे शिकवे दूर हो जाएँ जो क़ुदरत सौंप दे
कोई ख़ुश-ज़ौक़ ही 'शाहिद' ये नुक्ता जान सकता है
वही मक़्बूल लीडर और डिप्लोमैट होता है
जदीद-तरीन आदमी-नामा
ईद पर मसरूर हैं दोनों मियाँ बीवी बहुत
जश्न-ए-आज़ादी