आईना चुपके से मंज़र वो चुरा लेता है
तू सजाता है बदन जब कभी उर्यानी से
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मुझ को होना है तो दरवेश के जैसा हो जाऊँ
ये मैं ने माना कि पहरा है सख़्त रातों का
बदन-सराए में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ
एक रस्ते की कहानी जो सुनी पानी से
बे-सदा सी किसी आवाज़ के पीछे पीछे
ख़ुदा करे कि वही बात उस के दिल में हो
लड़खड़ाता हूँ कभी ख़ुद ही सँभल जाता हूँ
सफ़र कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया मेरा
मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे
बला से नाम वो मेरा उछाल देता है
नज़र भी आया तो ख़ुद से छुपा लिया मैं ने