बदन-सराए में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ
चुका रहा हूँ किराया मैं चंद साँसों का
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किसे ख़बर थी कि इस को भी टूट जाना था
मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे
सफ़र कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया मेरा
दिए निगाहों के अपनी बुझाए बैठा हूँ
ये मैं ने माना कि पहरा है सख़्त रातों का
एक रस्ते की कहानी जो सुनी पानी से
हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे
कितना दुश्वार है इक लम्हा भी अपना होना
नज़र भी आया तो ख़ुद से छुपा लिया मैं ने
इश्क़ अदब है तो अपने आप आए
वो कोई आम सा ही जुमला था