वो कोई आम सा ही जुमला था
तेरे मुँह से बुरा लगा मुझ को
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किसे ख़बर थी कि इस को भी टूट जाना था
बदन-सराए में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ
मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे
कितना दुश्वार है इक लम्हा भी अपना होना
हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे
यूँ उड़ाती है जो हवा मुझ को
एक रस्ते की कहानी जो सुनी पानी से
सफ़र कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया मेरा
तिरे ख़ुलूस के क़िस्से सुना रहा हूँ मैं
ये मैं ने माना कि पहरा है सख़्त रातों का
आईना चुपके से मंज़र वो चुरा लेता है