तुम्हारे सच की हिफ़ाज़त में यूँ हुआ अक्सर
कि अपने-आप को झूटा बना लिया मैं ने
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किसे ख़बर थी कि इस को भी टूट जाना था
ये मैं ने माना कि पहरा है सख़्त रातों का
कितना दुश्वार है इक लम्हा भी अपना होना
मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे
हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे
दिए निगाहों के अपनी बुझाए बैठा हूँ
एक रस्ते की कहानी जो सुनी पानी से
ख़ुदा करे कि वही बात उस के दिल में हो
आईना चुपके से मंज़र वो चुरा लेता है
लड़खड़ाता हूँ कभी ख़ुद ही सँभल जाता हूँ
मुझ को होना है तो दरवेश के जैसा हो जाऊँ
वो कोई आम सा ही जुमला था