कितना दुश्वार है इक लम्हा भी अपना होना
उस को ज़िद है कि मैं हर हाल में उस का हो जाऊँ
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ये मैं ने माना कि पहरा है सख़्त रातों का
आईना चुपके से मंज़र वो चुरा लेता है
किसे ख़बर थी कि इस को भी टूट जाना था
वो कोई आम सा ही जुमला था
नज़र भी आया तो ख़ुद से छुपा लिया मैं ने
हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे
मुझ को होना है तो दरवेश के जैसा हो जाऊँ
सफ़र कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया मेरा
लड़खड़ाता हूँ कभी ख़ुद ही सँभल जाता हूँ
मौसमों वाले नए दाना ओ पानी वाले
मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे