हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे
तुम्हारे शहर से हो कर उदास जाना था
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तिरे ख़ुलूस के क़िस्से सुना रहा हूँ मैं
बे-सदा सी किसी आवाज़ के पीछे पीछे
मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे
ख़ुदा करे कि वही बात उस के दिल में हो
वो कोई आम सा ही जुमला था
तुम्हारे सच की हिफ़ाज़त में यूँ हुआ अक्सर
आईना चुपके से मंज़र वो चुरा लेता है
मुझ को होना है तो दरवेश के जैसा हो जाऊँ
सफ़र कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया मेरा
कितना दुश्वार है इक लम्हा भी अपना होना
बदन-सराए में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ
बला से नाम वो मेरा उछाल देता है