बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
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साए का इज़्तिराब
कहाँ पे खोलोगे दर्द अपना किसे कहोगे
आगही का जाल
ख़ला में लुढ़कती ज़मीन
अरीज़े की डाली
इर्तिक़ा
बे-तहाशा उसे सोचा जाए
दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली
बिस्तर और बावर्ची
ख़्वाब और तमन्ना का क्या हिसाब रखना है
कैसे बुझाएँ कौन बुझाए बुझे भी क्यूँ
गुम-शुदा लम्हे की तलाश