हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
मैं आफ़्ताब के मानिंद रहगुज़ार में था
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हर रोज़ इम्तिहाँ से गुज़ारा तो मैं गया
नुमू-पज़ीर है इक दश्त-ए-बे-नुमू मुझ में
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
दिल में रक्खे हुए आँखों में बसाए हुए शख़्स
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ