हर शय से पलट रही हैं नज़रें
मंज़र कोई जम नहीं रहा है
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एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
नुमू-पज़ीर है इक दश्त-ए-बे-नुमू मुझ में
वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा