बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
यहाँ से शहर मिलेंगे अगर खुदाई हुई
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मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ