बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
ख़ुद अपने-आप से इक दिन कलाम मैं ने किया
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वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी