ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
जारी कोई इक याद पुरानी करें हम भी
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तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
समझ लिया था तुझे दोस्त हम ने धोके में
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल