मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
किसी किसी को तिरे ग़म का इस्तिआरा किया
Gulzar
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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Wasi Shah
Allama Iqbal
Jaun Eliya
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
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ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल