कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
क्या होगा जिसे ढूँडता था तेरे सिवा मैं
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नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
आँखों का भरम नहीं रहा है
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
नुमू-पज़ीर है इक दश्त-ए-बे-नुमू मुझ में
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
आँखों में एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है
उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है