हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
कितनी दूर से आई है ये रेत से हाथ मिलाने को
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तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
दिल में रक्खे हुए आँखों में बसाए हुए शख़्स
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
आँखों का भरम नहीं रहा है