वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
सो उस का जश्न ब-सद-एहतिमाम मैं ने किया
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कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
नुमू-पज़ीर है इक दश्त-ए-बे-नुमू मुझ में
आँखों का भरम नहीं रहा है
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
आँखों में एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है