ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
मंज़र का नज़ारा करूँ मंज़र से निकल कर
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बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
आँखों का भरम नहीं रहा है
आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह