इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
ये चाँद वो नहीं मिरा महताब और है
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ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
आँखों में एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है