ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
ख़बर नहीं कि समुंदर का फ़ैसला क्या है
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मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
दिल में रक्खे हुए आँखों में बसाए हुए शख़्स
ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
आँखों का भरम नहीं रहा है
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है