ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
दोस्त इक उम्र में मिलती है ये आसानी भी
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ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
नुमू-पज़ीर है इक दश्त-ए-बे-नुमू मुझ में
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
आँखों का भरम नहीं रहा है
पक्का रस्ता कच्ची सड़क और फिर पगडंडी
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
दिल में रक्खे हुए आँखों में बसाए हुए शख़्स
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
समझ लिया था तुझे दोस्त हम ने धोके में