समझ लिया था तुझे दोस्त हम ने धोके में
सो आज से तुझे बार-ए-दिगर समझते हैं
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मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
पक्का रस्ता कच्ची सड़क और फिर पगडंडी
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार