सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
सो ढलता रहा जलता रहा चलता रहा मैं
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इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
दिल में रक्खे हुए आँखों में बसाए हुए शख़्स
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
पक्का रस्ता कच्ची सड़क और फिर पगडंडी
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा