आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह
तन-ए-मल्बूस! ये पहनी हुई उर्यानी भी
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एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
दिल में रक्खे हुए आँखों में बसाए हुए शख़्स
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
हर रोज़ इम्तिहाँ से गुज़ारा तो मैं गया
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा