पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में
क्यूँ दिल को मैं ने ज़ुल्म का ख़ूगर बना दिया
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आह करता हूँ तो आती है पलट कर ये सदा
एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी
तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
तेरी जफ़ा वफ़ा सही मेरी वफ़ा जफ़ा सही
रंग उड़ कर रौनक़-ए-तस्वीर आधी रह गई
मेरी क़िस्मत से क़फ़स का या तो दर खुलता नहीं
वो जो फ़िरदौस-ए-नज़र है आईना-ख़ाना अभी
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम
गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया