एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी
एक वो हैं दिन चढ़े तक जिन का दर खुलता नहीं
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वो जो फ़िरदौस-ए-नज़र है आईना-ख़ाना अभी
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
रंग उड़ कर रौनक़-ए-तस्वीर आधी रह गई
फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना
हसीनों के तबस्सुम का तक़ाज़ा और ही कुछ है
जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का
तेरी जफ़ा वफ़ा सही मेरी वफ़ा जफ़ा सही
हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम
हुस्न का हर ख़याल रौशन है
तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया