तेरी जफ़ा वफ़ा सही मेरी वफ़ा जफ़ा सही
ख़ून किसी का भी नहीं तो ये बता है क्या शफ़क़
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तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
रंग उड़ कर रौनक़-ए-तस्वीर आधी रह गई
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का
हुस्न का हर ख़याल रौशन है
एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी
गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम
वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया
पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में