गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
मगर है कारवाँ अपना न मीर-ए-कारवाँ अपना
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तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया
तेरी जफ़ा वफ़ा सही मेरी वफ़ा जफ़ा सही
हसीनों के तबस्सुम का तक़ाज़ा और ही कुछ है
रंग उड़ कर रौनक़-ए-तस्वीर आधी रह गई
हुस्न का हर ख़याल रौशन है
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में
एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
जिस से वफ़ा की थी उम्मीद उस ने अदा किया ये हक़
फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना