सोहबत-ए-वस्ल है मसदूद हैं दर हाए हिजाब
नहीं मालूम ये किस आह से शरम आती है
Parveen Shakir
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Gulzar
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न जान कर गुल-ए-बाज़ी बहुत उछाल के फेंक
वो नहा कर ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को जो बिखराने लगे
तू वो हिन्दोस्ताँ में लाला है
अब्र-ए-दीदा का मिरे हो जो न ओझढ़ पानी
हस्ती-ओ-अदम में नफ़स-ए-चंद बशर के
लब-ए-जाँ-बख़्श पर जो नाला है
मिरी बे-रिश्ता-दिली से उसे मज़ा मिल जाए
शर्तें जो बंदगी में लगाना रवा हुआ
क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और
दुनिया भी अजब हसीन ज़न है
वो मय-परस्त हूँ बदली न जब नज़र आई
मैं वो बे-चारा हूँ जिस से बे-कसी मानूस है