वो नहा कर ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को जो बिखराने लगे
हुस्न के दरिया में पिन्हाँ साँप लहराने लगे
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हस्ती-ओ-अदम में नफ़स-ए-चंद बशर के
ख़लिश-ए-ख़ार हो वहशत में कि ग़म टूट पड़े
वस्ल में बेकार है मुँह पर नक़ाब
क़ौल उस दरोग़-गो का कोई भी सच हुआ है
ख़त देखिए दीदार की सूझी ये नई है
क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और
इश्क़ में ज़ोर उम्र-भर मारा
जिस के हम बीमार हैं ग़म ने उसे भी राँदा है
चश्म-ए-तर ने बहा के जू-ए-सरिश्क
शक्ल-ए-मिज़्गाँ न ख़ार की सी है
वो मय-परस्त हूँ बदली न जब नज़र आई
जब जीते-जी न पूछा पूछेंगे क्या मरे पर