विसाल-ए-यार से दूना हुआ इश्क़
मरज़ बढ़ता गया जूँ जूँ दवा की
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उस ने अफ़्शाँ जो चुनी रात को तन्हा हो कर
दुनिया भी अजब हसीन ज़न है
न तड़पने की इजाज़त है न फ़रियाद की है
वो मय-परस्त हूँ बदली न जब नज़र आई
पास उस बुत के जो ग़ैर आ के कोई बैठ गया
ऐ बद-गुमाँ तिरा है गुमाँ और की तरफ़
दुनिया में क़स्र-ओ-ऐवाँ बे-फ़ाएदा बनाया
लुंज वो पा-ए-तलब हूँ कहीं जा ही न सकूँ
मैं वो बे-चारा हूँ जिस से बे-कसी मानूस है
क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और
पानी पानी हो ख़जालत से हर इक चश्म-ए-हबाब
जों सब्ज़ा रहे उगते ही पैरों के तले हम