जिगर का जूँ शम्अ काश या-रब हो दाग़ रौशन मुराद हासिल
गर्दिश-ए-चर्ख़ नहीं कम भी हंडोले से कि महर
ज़ुल्फ़ छुटती तिरे रुख़ पर तो दिल अपना फिरता
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
हार बना इन पारा-ए-दिल का माँग न गजरा फूलों का
ख़याल-ए-नाफ़-ए-बुताँ से हो क्यूँ कि दिल जाँ-बर
क्यूँ मय के पीने से करूँ इंकार नासेहा
मेरी तुर्बत पर चढ़ाने ढूँडता है किस के फूल
न ज़िक्र-ए-आश्ना ने क़िस्सा-ए-बेगाना रखते हैं
तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब
की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
शौक़-ए-कुश्तन है उसे ज़ौक़-ए-शहादत है मुझे