ख़याल-ए-नाफ़-ए-बुताँ से हो क्यूँ कि दिल जाँ-बर
निकलते कोई भँवर से न डूबता देखा
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जो गुज़रे है बर आशिक़-ए-कामिल नहीं मालूम
मैं उस की चश्म का बीमार-ए-ना-तवाँ हूँ तबीब
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
न दिखाइयो हिज्र का दर्द-ओ-अलम तुझे देता हूँ चर्ख़-ए-ख़ुदा की क़सम
कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
इक पल में झड़ी अब्र-ए-तुनक-माया की शेख़ी
निकहत-ए-गुल हैं या सबा हैं हम
टाँकों से ज़ख़्म-ए-पहलू लगता है कंखजूरा
जूँ मौज हाथ मारिए क्या बहर-ए-इश्क़ में
ख़ुदा के वास्ते चेहरे से टुक नक़ाब उठा
उठती घटा है किस तरह बोले वो ज़ुल्फ़ उठा कि यूँ
अब्र-ए-नैसाँ की भी झड़ जाएगी पल में शेख़ी