मैं उस की चश्म का बीमार-ए-ना-तवाँ हूँ तबीब
जो मेरे हक़ में मुनासिब हो वो दवा ठहरा
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ज़ुल्फ़ का क्या उस की चटका लग गया
दम ले ऐ कोहकन अब तेशा-ज़नी ख़ूब नहीं
इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
दिखा दो गर माँग अपनी शब को तो हश्र बरपा हो कहकशाँ पर
हो चुकी बाग़ में बहार अफ़सोस
सुपर रखता हूँ मैं भी आफ़्ताबी साग़र-ए-मय की
दिला उस की काकुल से रख जम्अ ख़ातिर
चमन में ग़ुंचा मुँह खोले है जब कुछ दिल की कहने को
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
ब'अद-ए-मजनूँ क्यूँ न हूँ मैं कार-फ़रमा-ए-जुनूँ
न ज़िक्र-ए-आश्ना ने क़िस्सा-ए-बेगाना रखते हैं