सुपर रखता हूँ मैं भी आफ़्ताबी साग़र-ए-मय की
मुझे ऐ अब्र तेग़-ए-बर्क़ को चमका के मत धमका
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ख़ानदान-ए-क़ैस का मैं तो सदा से पीर हूँ
इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट
कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
इश्क़ ही दोनों तरफ़ जल्वा-ए-दिलदार हुआ
दिल-ए-पुर-आबला लाया हूँ दिखाने तुम को
रख क़दम होश्यार हो कर इश्क़ की मंज़िल में आह
ये अब्र है या फ़ील-ए-सियह-मस्त है साक़ी
क्या दिखाता है फ़लक-ए-गर्म तू नान-ए-ख़ुर्शीद
गले में तू ने वहाँ मोतियों का पहना हार
जूँ मौज हाथ मारिए क्या बहर-ए-इश्क़ में
ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
कम नहीं है अफ़सर-शाही से कुछ ताज-ए-गदा