ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ ही हर दम हमें तो लैल-ओ-नहार आया
Allama Iqbal
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तार-ए-मिज़्गाँ पे रवाँ यूँ है मिरा तिफ़्ल-ए-सरिश्क
'नसीर' उस ज़ुल्फ़ की ये कज-अदाई कोई जाती है
'नसीर' अब हम को क्या है क़िस्सा-ए-कौनैन से मतलब
चश्म में कब अश्क भर लाते हैं हम
वक़्त-ए-नमाज़ है उन का क़ामत-गाह-ए-ख़दंग-ओ-गाह-ए-कमाँ
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
रंग मैला न हुआ जामा-ए-उर्यानी का
पामाल-ए-राह-ए-इश्क़ हैं ख़िल्क़त की खा ठोकर भी हम
वाँ कमर बाँधे हैं मिज़्गाँ क़त्ल पर दोनों तरफ़
सर-ए-मिज़्गाँ ये नाले अब भी आँसू को तरसते हैं
तिरे दाँत सारे सफ़ेद हैं पए-ज़ेब पान से मल कर आ
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का