'नसीर' उस ज़ुल्फ़ की ये कज-अदाई कोई जाती है
मसल मशहूर है रस्सी जली लेकिन न बल निकला
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क्यूँ न कहें बशर को हम आतिश-ओ-आब ओ ख़ाक-ओ-बाद
दिला उस की काकुल से रख जम्अ ख़ातिर
लगाई किस बुत-ए-मय-नोश ने है ताक उस पर
ग़र्क़ न कर दिखला कर दिल को कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
कर के आज़ाद हर इक शहपर-ए-बुलबुल कतरा
शौक़-ए-कुश्तन है उसे ज़ौक़-ए-शहादत है मुझे
इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में
मैं ने बिठला के जो पास उस को खिलाया बीड़ा
शराब लाओ कबाब लाओ हमारे दिल को न अब घटाओ
देखोगे कि मैं कैसा फिर शोर मचाता हूँ
क्यूँ मय के पीने से करूँ इंकार नासेहा
दम ले ऐ कोहकन अब तेशा-ज़नी ख़ूब नहीं