इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट
तेरी गिरह में क्या दिल-ए-अंदोह-गीं रहा
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ग़ुरूर-ए-हुस्न न कर जज़्बा-ए-ज़ुलेख़ा देख
गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है
आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
शौक़-ए-कुश्तन है उसे ज़ौक़-ए-शहादत है मुझे
मैं ने बिठला के जो पास उस को खिलाया बीड़ा
बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों
कभू न उस रुख़-ए-रौशन पे छाइयाँ देखीं
न ज़िक्र-ए-आश्ना ने क़िस्सा-ए-बेगाना रखते हैं
ज़ुल्फ़ छुटती तिरे रुख़ पर तो दिल अपना फिरता
सुब्ह-ए-गुलशन में हो गर वो गुल-ए-ख़ंदाँ पैदा
सैर की हम ने जो कल महफ़िल-ए-ख़ामोशाँ की
सुपर रखता हूँ मैं भी आफ़्ताबी साग़र-ए-मय की