दूद-ए-आह-ए-जिगरी काम न आया यारो
वर्ना रू-ए-शब-ए-हिज्र और भी काला करता
Gulzar
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गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है
हुआ अश्क-ए-गुलगूँ बहार-ए-गरेबाँ
आता है तो आ वादा-फ़रामोश वगर्ना
की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों
ज़ुल्फ़ का क्या उस की चटका लग गया
न हाथ रख मिरे सीने पे दिल नहीं इस में
मता-ए-दिल बहुत अर्ज़ां है क्यूँ नहीं लेते
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
सुपर रखता हूँ मैं भी आफ़्ताबी साग़र-ए-मय की
हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह