आता है तो आ वादा-फ़रामोश वगर्ना
हर रोज़ का ये लैत-ओ-ल'अल जाए तो अच्छा
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शब जो रुख़-ए-पुर-ख़ाल से वो बुर्के को उतारे सोते हैं
जो ऐन वस्ल में आराम से नहीं वाक़िफ़
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
मेरी तुर्बत पर चढ़ाने ढूँडता है किस के फूल
मत पूछ वारदात-ए-शब-ए-हिज्र ऐ 'नसीर'
इक पल में झड़ी अब्र-ए-तुनक-माया की शेख़ी
दैर-ओ-काबा में तफ़ावुत ख़ल्क़ के नज़दीक है
वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
दिखा दो गर माँग अपनी शब को तो हश्र बरपा हो कहकशाँ पर
रख क़दम होश्यार हो कर इश्क़ की मंज़िल में आह
बना कर मन को मनका और रग-ए-तन के तईं रिश्ता
बयाबाँ मर्ग है मजनून-ए-ख़ाक-आलूदा-तन किस का