दैर-ओ-काबा में तफ़ावुत ख़ल्क़ के नज़दीक है
शाहिद-ए-मअ'नी का हर सूरत है घर दोनों तरफ़
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ख़ुदा के वास्ते चेहरे से टुक नक़ाब उठा
पूछने वालों को क्या कहिए कि धोके में नहीं
जूँ मौज हाथ मारिए क्या बहर-ए-इश्क़ में
दूद-ए-आह-ए-जिगरी काम न आया यारो
सुब्ह-ए-गुलशन में हो गर वो गुल-ए-ख़ंदाँ पैदा
जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा
इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट
क्या दिखाता है फ़लक-ए-गर्म तू नान-ए-ख़ुर्शीद
फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ
याँ से देंगे न तुम को जाने आज
तलब में बोसे की क्या है हुज्जत सवाल दीगर जवाब दीगर
क्यूँ मय के पीने से करूँ इंकार नासेहा