दे मुझ को भी इस दौर में साक़ी सिपर-ए-जाम
हर मौज-ए-हवा खींचे है शमशीर हवा पर
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तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब
बे-सबब हाथ कटारी को लगाना क्या था
लगाई किस बुत-ए-मय-नोश ने है ताक उस पर
सैर की हम ने जो कल महफ़िल-ए-ख़ामोशाँ की
दूद-ए-आह-ए-जिगरी काम न आया यारो
लगा जब अक्स-ए-अबरू देखने दिलदार पानी में
की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
दम ले ऐ कोहकन अब तेशा-ज़नी ख़ूब नहीं
ज़ुल्फ़ का क्या उस की चटका लग गया
मुल्ला की दौड़ जैसे है मस्जिद तलक 'नसीर'
इसी मज़मून से मालूम उस की सर्द-मेहरी है
काबे से ग़रज़ उस को न बुत-ख़ाने से मतलब